आज़ादी का दीवाना चंद्रशेखर आज़ाद | chandraSheker aazad Ke Prerak Prasang

आज़ादी का दीवाना चंद्रशेखर आज़ाद |

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आज़ादी के लिए वैसे तो कई वीरों ने अपनी जान न्योछावर कर दी,

पर इन सभी में आज़ाद चंद्रशेखर का स्थान सबसे अलग है

आइये आज इस पोस्ट में हम आपके साथ उनके साहस की कहानियां शेयर करेंगें ।

एकबार की बात है । जब मजिस्ट्रेट ने एक एक बच्चे से प्रश्न किया कि क्या नाम है तुम्हारा ?

तब बड़े तेज स्वर में जबाब देते हुये बोला – आज़ाद

मजिस्ट्रेट ने फिर पूछा – बाप का क्या नाम है ?

उसने उत्तर दिया स्वाधीनता मेरे पिता है ।

मजिस्ट्रेट ने फिर पूछा – तुम्हारा घर कहाँ है ?

उसने कहा – जेलखाना

मजिस्ट्रेट को गुस्सा आ गया उन्होंने कहा- इसे ले जाओ और 15 बेंत लगाकर छोड़ देना ।

बालक के नंगे शरीर पर तब तक  बेंत लगाये गये , जब तक वह बेहोश नहीं हो गया ।

इस घटना के बाद से ही वीर बालक के नाम के साथ आज़ाद जुड़ गया । और वह चंद्रशेखर आज़ाद कहलाने लगा ॰ ।

चंद्रशेखर आज़ाद जब छोटे थे | 

 

दीवाली के दिन की बात है । उनके पास रंगीन माचिस थी ।

वे अपने मित्रों से बोले- अगर एक तीली जलाते है तो कम रोशनी  होगी ।

अगर हम सारी तीलियाँ एक साथ जला देते है तो बहुत तेज़ रोशनी होती है ।

उनके दोस्तों को डर  था कि इससे हाथ भी जल सकता है और किसी ने नहीं जलाई ।

चंद्रशेखर आज़ाद ने देखते ही देखते सारी तीलियाँ जला दी । बहुत तेज़ रोशनी हुयी ।

लेकिन उसने अपना हाथ भी जला लिया और  उफ़ भी नहीं की ।

चंद्रशेखर आज़ाद जब  केवल 11 बर्ष के थे । जलियांवाला बाग़ में भीषण हत्याकांड हुआ।

उनकी आँखों के सामने ही अनेकों भारतियों को गोली मार दी गयी ।

यह देखकर चंद्रशेखर आज़ाद का खून खौल गया । इस घटना ने उनका जीवन बदल कर रख दिया ।

 

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चंद्रशेखर आज़ाद गाँधी जी द्वारा जो आन्दोलन चलाये गये  उन्होंने भाग ले लिया ।

भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव आदि सभी उनके साथी थे ।

क्रन्तिकारी उस समय बड़ी परेशानियों का सामना कर रहे थे ।

सबसे बड़ी परेशानी थी धन का अभाव ।

चंद्रशेखर आज़ाद ने अपने साथियों के साथ उन्होंने काकोरी स्टेशन पर ट्रेन को रोका ।

उसमें  रखा सारा सरकारी धन लूट लिया ।

अंग्रेज पुलिस ने सबको पकड़ना शुरू कर दिया पर चंद्रशेखर आज़ाद को पुलिस पकड़ न पाई ।

चंद्रशेखर   की प्रतीज्ञा थी| “मैं जब तक जिन्दा  हूँ , मैं अंग्रेजों के हाथ नहीं आऊँगा’”।

 

इस प्रण को उन्होंने निभाया भी और अंग्रेज सरकार उन्हें पकड़ नहीं पायी ।

 

27 फरवरी, सन 1931 को सुबह 10 बजे चंद्रशेखर आज़ाद और उनका दोस्त सुखदेव अल्फ्रेड पार्क में बैठे थे ।

पुलिस के दो सिपाहियों में से एक ने चंद्रशेखर आज़ाद को पहचान लिया ।

थोड़ी देर बाद पार्क को चारों तरफ से घेर लिया गया।

 

दोनों तरफ से गोलिवारी होती रही पर जब चंद्रशेखर आज़ाद के पास एक ही गोली बची ।

वह कुछ देर रुके और उस अन्तिम गोली से अपनी जान ले ली ।

उन्होंने मात्रभूमि की रक्षा के लिये अपने प्राण न्योछावर कर दिए ।

वास्तव में चंद्रशेखर आज़ाद आज़ादी के दीवाने थे ।

 

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