विश्व पर्यावरण दिवस पर कविता
Hindi Poem on world Environment day
मैं-वही धरा
जो जीवन को धारण करने
का वरदान लेकर
अनंत आकाशगंगाओं के
बीच आई थी,
मेरे गर्भ में कैसे आया,
ये जीवन
कैसे तप्त गर्म आग के गोले से
बदल गई शीतल नीले ग्रह में
कैसे विनाश के क्रोध को
दबा लिया अपने अन्दर
वहीं जहाँ आज भी
धधक रही हूँ मैं
कैसे विकास क्रम में
सबको निखारा मैंने
और पैदा किया अपने संघर्ष
से विकसित होने का जुनून
कैसे धीरे-धीरे गढ़े
वो सारे प्राकृतिक नियम
जिनमें गति लय और संतुलन
सब कुछ स्वतः नियंत्रित
विकास के चरम पर
पहुँचने को आतुर
हज़ारों पौधे, जीव जन्तु
नदी, झरने, तालाब, समुद्र
पर्वत, पहाड़, पठार
जल और वायु के बबंडर
मृदा के फैले हुए खण्डहर
सब बन और बिगड़ रहा था
मेरी प्रयोगशाला में
मेरे ही अन्दर
पर ये कौन है
जो मुझसे ही उत्पन्न हो
मुझे ही लगातार चुनौती दे रहा है
जिसे अपना उदंड बच्चा मान
मैं हर बार कर देती हूँ क्षमा
ये कौन है ?
जो सर्वशक्तिमान होने का भ्रम
पाले बैठा है
और मेरे संतुलन को
कर रहा है असंतुलित
अरे मूर्ख मनुष्य
तेरा सारा ज्ञान विज्ञानं
भी मेरे अंश मात्र क्रोध
को सह नहीं पायेगा
अभी न तो पूरा अतीत जान पाया है
न ही भविष्य पढने की ताकत ला पाया है
आँखे खोल कर देख इस वर्तमान को
जिसमें जी रहा है
हर एक डिग्री पर बढ़ता तापमान
तेरी सारी तकनीक को पिघला रहा है
ये गन्दी हवा तेरे फेफड़ों में घुसकर
तुझे खाद्य श्रंखला की सबसे कमजोर
कड़ी बना रही है
इस कंक्रीट के जंगलों में
बिना हरियाली भटकता हुआ तू
अपनी ही साँसों की भीख माँग रहा है
अगर ताकत है तो-
देख अपने भविष्य को
कहीं इससे भी भयानक
तो नहीं है
मैंने तो न जाने कितनी
जाति और प्रजातियों को
बनते और लुप्त होते देखा है
कहीं अब तेरी बारी तो नहीं…
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Name: Venus Singh
Profession: Teacher
We are grateful to Venus Singh for sharing this beautiful Poetry with us.
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