बहुत अजीब हूँ मैं हिंदी कविता ।
Hindi Poetry on understanding myself
कभी-कभी लगता है मैं कुछ अजीब सी हूँ
इस अजीब होने से भी ज़्यादा अजीब है
वो अजीबपन
जो कभी मुझे अच्छा लगता है
और कभी मुझे चुभता है
अब रोज़मर्रा की बातें ही देख लो
कभी चाहती हूँ घर एकदम साफ़सुथरा
सारी चीज़ें जगह पर
और कभी सब कुछ बिखरा बिखरा,
समान इधर -उधर पड़ा
किचन में सब बेतरतीब पड़ा
वैसे तो पसंद है मुझे
सारा घर साफ़ सुथरा, सलीक़े से हर चीज़ हो
और रखती भी हूँ साफ़ सुथरा
सुकून भी उसी में आता है
मगर हफ़्ते में एक दिन ऐसा आ ही जाता है
जब घर की हर एक चीज़ को मैं इजाजत दे देती हूँ
जिसे जहाँ रहना है जैसे रहना है रहे
सबको स्वतंत्र करके ख़ुद भी तो स्वतंत्र हो जाती हूँ
सब यूँ ही छोड़कर फिर मैं सो जाती हूँ
अजीब सा सुख मिलता है इन बेतरतीब चीज़ों को देखकर
ज़रूरी तो नहीं जिस सामान की जो जगह है वह सलीक़े से
वहाँ रहे
क्यूँ एक ही जगह रहने की सज़ा हम दें इन सब को
तमीज़ , सलीक़ा , समाज यानी कि बाहर की दुनिया
दिखावे की दुनिया
जाने क्यों मैं दुनिया को उस नज़र से देख ही नहीं पाती
जैसे सब देखते हैं
और फिर मेरे अंदर का अजीबपन साफ़ दिखने लगता है
फिर उठकर सारा घर सलीक़े से लगाती हूँ
कभी बैठकर ख़ुद को घंटों मनाती हूँ
है न अजीब सी बात और मैं हूँ भी अजीब
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रात और चाँद
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तनहाँ सी ज़िंदगी
तुम भी क्या ख़ूब कमाल करते हो
हमारे देश की महान नारी
क्य वाक़ई में भारत आज़ाद हो गया है
ये ख़ामोशी ये रात ये बेदिली का आलम
कभी कभी अपनी परछाईं से भी डर लगता है
मैंने चाहा था चलना आसमानों पे
कविता लिखी नहीं जाती लिख जाती है
अभी अभी तो उड़ान को पंख लगे हैं मेरी
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