न जाने क्यूँ….कभी कभी अपनी परछाइयों से भी डर लगता है ।
Sad Hindi Poem
न जाने क्यूँ….
कभी कभी अपनी परछाइयों से भी डर लगता है
जब ये अपनी बड़ी- बड़ी आँखों से मुझे घूरती हैं
तो इनके घूरने से डर लगता है
कभी कभी अपनी परछाइयों से भी डर लगता है…
कभी मेरे आगे, तो कभी मेरे पीछे
तो कभी दाएँ, तो कभी बाएँ
जैसे जैसे रूख बदलती हूँ मैं
मेरे आगे आकर सामने खड़ी हो जाने का डर लगता है
इनके साथ चलने की आदत सी हो गयी है मुझे
अंधेरी रातों में इनके खो जाने का डर लगता है
जब ये बात करना चाहें मुझसे
और जब मैं इनसे बात नहीं करती
ये मुझे देखती रहतीं है
और मैं आगे बढ़ जाती हूँ
कभी- कभी इनके रूठ जाने का डर लगता है
ये मैं ही हूँ या ये ही हूँ मैं
मुझे सूरज के सामने जाने से डर लगता है
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क्य वाक़ई में भारत आज़ाद हो गया है
ये ख़ामोशी ये रात ये बेदिली का आलम
कभी कभी अपनी परछाईं से भी डर लगता है
मैंने चाहा था चलना आसमानों पे
कविता लिखी नहीं जाती लिख जाती है
अभी अभी तो उड़ान को पंख लगे हैं मेरी
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